शिक्षक दिवसः पलामू में अनुशासन के साथ शिक्षा का प्रसार करने वाले व्यक्ति थे जेएन दीक्षित

प्रभात मिश्रा, अमर उजाला
लाइव पलामू न्यूज: पलामू में आप जैसे ही दीक्षित जी का नाम लेंगे पुराने समय से लेकर आज के लोग भी श्रद्धा से सिर झुका लेंगे। उन्होंने जिले में शिक्षा की ऐसी अलख जगाई है, जिसकी रोशनी आज भी चारों ओर फैली है। उनके अनुशासन और व्यवहार के मुरीद न जाने कितनी संख्या में पूरे देश में भरे पड़े हैं। उनके अनुशासन का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब उनकी गाड़ी गणेश लाल अग्रवाल कॉलेज परिसर में पहुंचती थी तो छात्र-छात्रा ही नहीं शिक्षक भी सचेत होकर अपनी कक्षाओं या डिपार्टमेंट में चले जाते थे। व्यवहार इतना मधुर था कि मीसा के दौरान जेल में बंद अपने छात्रों से मिलने के लिए वे हजारीबाग जेल तक मिठाई का डिब्बा लेकर पहुंच गए थे।




प्रो. जगदीश नारायण दीक्षित जीएलए कॉलेज के संस्थापक प्राचार्य नहीं थे। 1954 में जब इस कॉलेज की स्थापना हुई तो पहले प्राचार्य कैप्टन जीपी हजारी बनाए गए। कुछ महीने के बाद 1955 में दीक्षित जी यहां प्राचार्य के रूप में आते हैं। इसके बाद कॉलेज ने पलामू ही नहीं आज के झारखंड के सर्वश्रेष्ठ महाविद्यालयों में अपना नाम दर्ज करा लिया। दीक्षित जी मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के उबू गांव के निवासी थे। इनकी शिक्षा कानपुर में हुई। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने यहीं शिक्षण प्रारंभ किया। इसके बाद ये बिहार के गया कॉलेज पहुंच गए। यहां ये हिंदी पढ़ाया करते थे। उनकी पहचान हिंदी और संस्कृत के बड़े विद्वान के रूप में होती थी।



जीएलए कॉलेज के संस्थापक गणेश लाल अग्रवाल जी के पास जब दीक्षित जी की विद्वता, कार्यशैली और अनुशासनप्रियता की बात पहुंची तो उन्होंने इन्हें अपने कॉलेज में बुला लिया। उनके यहां आते ही कॉलेज उत्तरोत्तर प्रगति करने लगा। अपना भवन बना, कई कोर्स शुरू हुए, पलामू के लोगों को उच्च शिक्षा के लिए बेहतरीन शिक्षक मिलने लगे। दीक्षित जी को याद करते हुए जीएलए कॉलेज में अंग्रेजी विभाग के प्राध्यापक रहे प्रो. सुभाष चंद्र मिश्रा कहते हैं, ‘ पलामू में शिक्षा का प्रसार अनुशासन के तहत करने वाल व्यक्ति का नाम है जेएन दीक्षित। वे कॉलेज में जितने ही कड़क थे घर में उतने ही मृदुभाषी।



जिस शिक्षक या छात्र को कॉलेज में थोड़ी सी भी गलती करने पर अनुशासन की राह पर ले आते थे, वही जब उनसे घर पर मिलने आता तो वह उससे बिलकुल मित्रवत व्यवहार करते। कॉलेज में कड़े शब्दों में सीख देते तो घर पर मीठी बातों से जीवन का मर्म समझा देते थे। कॉलेज में जब परीक्षा होती थी तो उनका खौफ देखने को मिलता था। पहले वे समझाते थे पर जब इस पर भी छात्र नहीं मानते तो वे सीधे रस्टिकेट (निष्कासित) कर देते थे।’ प्रो. मिश्रा कहते हैं, ‘कॉलेज और जिले में खेल को बढ़ावा देने में भी दीक्षित जी का बड़ा योगदान था। प्रो. ए हसनात, प्रो. डीएस श्रीवास्तव, डॉ. संतोष कुमार मुखर्जी ‘केबूदा’ और मैं जब भी उनके पास खेल सुविधा या खेल के सामान के लिए बात करने जाते थे तो वे तत्काल सारी चीजें मुहैया करा देते थे।’




1972 से लेकर 1979 तक बिहार की वॉलीबाल टीम के प्रतिनिधित्व और 1976 से इस टीम के कप्तान रहे पलामू के नौगढ़ा गांव के निवासी रामाशंकर सिंह दीक्षित जी के खेल प्रेम के मुरीद हैं। वह कहते हैं, ‘1968 और 1971 में जीएलए कॉलेज में रांची विश्वविद्यालय की इंटर कॉलेज वालीबॉल टूर्नामेंट का आयोजन बड़े ही शानदार ढंग से किया गया था। मैं मारवाड़ी कॉलेज की ओर से खेलने आया था। दीक्षित जी के नेतृत्व में डालटनगंज में हुआ यह यादगार आयोजन था। यहां उनकी अनुशासनप्रियता देखते ही बनती थी। वह हर मैच में मौजूद रहते थे और खिलाड़ियों का उत्साह बढ़ाते थे। उनसे श्रेष्ठ खिलाड़ी का खिताब ग्रहण करना मेरे सुखद अनुभूतियों में से एक है।’



दीक्षित जी के समय जीएलए कॉलेज छात्र संघ के महामंत्री रहे रविशंकर पांडेय के मन में उनके प्रति अत्यंत श्रद्धा के भाव हैं। आंदोलन के दौरान दीक्षित जी उनसे काफी खफा हो गए थे और उनके पिताजी के पास उन्हें रस्टिकेट करने का पत्र तक भेज दिया था। पर बाद में मामला सुलझ गया था। पांडेय जी कहते हैं, ‘छात्रों की समस्या होती थी तो मैं उनके हित में आंदोलन करता था। इस दौरान कई बार प्राचार्य से विवाद भी होता था। इसी समय 1974 में मीसा के तहत मेरी गिरफ्तारी हो जाती है और मुझे डालटनगंज जेल से हजारीबाग जेल भेज दिया जाता है। एक दिन हजारीबाग जेल में मुझे बताया जाता है कि दीक्षित जी आपसे मिलने के लिए आए हैं। मैं उनसे मिलने पहुंचता हूं तो मेरी आंखें डबडबा गईं।



यही हाल दीक्षित जी का भी था। वह मिठाई का डिब्बा भी लेकर आए थे। उन्होंने मुझे मिठाई खिलाई और इसके बाद जेल में बंद इंदर सिंह नामधारी, तारकेश्वर आजाद और प्रमोद बिहारी शुक्ला से भी मिले। उनका मुझ से मिलने आना मेरे लिए सुखद आश्चर्य तो था ही जीवन में सीख देने वाला भी था।’
अमिताभ दीक्षित मेरे बचपन के मित्र और दीक्षित जी के पोते हैं। वह कहते हैं, ‘बाबा के लिए शिक्षा और अनुशासन सबसे प्रिय था। एक बार कॉलेज में आंदोलन के दौरान एक छात्र द्वारा फेंके गए पत्थर से उनका सिर फट गया था। कॉलेज ही नहीं पूरे शहर में यह बात आग की तरह फैल गई। पुलिस कॉलेज गेट तक पहुंच गई।



पुलिस के आने के बाद बाबा ने उन्हें यह कहते हुए अंदर आने की अनुमति नहीं दी कि यह हमारे कॉलेज का मामला है, इसे हम खुद निपटा लेंगे। आप लोग बाहर से ही लौट जाइए। इसके बाद जिस छात्र ने पत्थर चलाया था वह उनसे मिलने घर पर आया और फूट-फूट कर रोने लगा। बाबा ने उसे न सिर्फ माफ किया बल्कि आगे बढ़ने की शुभकामनाएं भी दीं।’ इस घटना को याद करते हुए जीएलए कॉलेज में उस दौर के छात्र रहे ललन कुमार सिन्हा कहते हैं, ‘छात्रों का आंदोलन अपनी मांगों को पूरा करने के लिए चल रहा था। भीड़ प्रिंसिपल चैंबर के सामने के पीपल के पेड़ के पास जुटी हुई थी। तभी दीक्षित जी वहां आते हैं और चबूतरे पर चढ़ कर कहते हैं कि तुम्हारा प्रिंसिपल तुम्हारे सामने खड़ा है… मारो-मारो अपने बाप जैसे प्रिंसिपल को मारो।



उनकी निडरता और साफगोई मेरे दिल को छू गई, इसके बाद से मैं उनका मुरीद हो गया।’ एक बार जीएलए कॉलेज में सालाना खेलकूद प्रतियोगिता चल रही थी। मैं दूसरी या तीसरी कक्षा में पढ़ता था। यह आयोजन इतना भव्य होता था कि कॉलेज परिवार के अलावा बाहर से भी लोग इसे देखने पहुंचते थे। उस साल शिक्षकों के काफी बच्चे आए हुए थे। इनके लिए भी रेस का आयोजन हुआ था। मैं और अमिताभ इसमें क्रमशः प्रथम और द्वितीय हुए थे। दीक्षित जी ने हमें डिप्लोमा की कलम पुरस्कार स्वरूप दी थी और गोद में उठा लिया था।
दीक्षित जी ने कई पुस्तकें भी लिखीं थी। उनकी नाटक की पुस्तक ‘कर्ज-भार’ के मुख्य पृष्ठ की तस्वीर मैंने पोस्ट के साथ लगाई है। उनके दो लड़के प्रकाश नारायण दीक्षित और प्रो. विनोद नारायण दीक्षित व एक लड़की प्रभा थीं। प्रो. विनोद नारायण दीक्षित जीएलए कॉलेज में इतिहास पढ़ाते थे। वह इमरजेंसी में जेल जा चुके थे और 1977 में गढ़वा से विधायक भी चुने गए थे। उनके दो पोते अमिताभ दीक्षित और बॉबी दीक्षित हैं।